
नई दिल्ली
नॉर्थ दिल्ली के मजनू का टीला में यमुना किनारे बसे पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थियों को वहां से हटना होगा। यमुना के रीस्टोरेशन की कोशिशों के अंतर्गत इलाके में चल रही डीडीए की कार्रवाई से उन्हें कोई राहत नहीं मिली। दिल्ली हाई कोर्ट ने डीडीए को यह निर्देश देने से इनकार कर दिया कि वह मजनू का टीला में पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थी शिविर को तब तक न छेड़े या तोड़े, जब तक कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों से यहां आए गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों को नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 के अनुसार आश्रय देने की नीति के मुताबिक निवासियों को वैकल्पिक जमीन आवंटित नहीं कर दी जाती।
जस्टिस धर्मेश शर्मा ने रवि रंजन सिंह की याचिका खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता और बाकी शरणार्थियों को संबंधित क्षेत्र में कब्जा जारी रखने का कोई अधिकार नहीं है। लिहाजा, ये अदालत 12 मार्च 2024 का अंतरिम आदेश निरस्त करती है। याचिका में मांगी गई राहतों में यह भी था कि डीडीए को यमुना नदी के किनारे बांध बनाने का निर्देश दिया जाए, ताकि इस तरह की कॉलोनियों और धार्मिक संरचनाओं को अक्षरधाम मंदिर और कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज की तरह संरक्षित किया जा सके और यमुना नदी की पवित्रता भी बनी रहे।
यमुना फ्लडप्लेन की सुरक्षा जरूरी
30 मई को मामले में सुनाए गए अपने फैसले में हाई कोर्ट ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि यमुना फ्लडप्लेन की सुरक्षा जरूरी है, न केवल पर्यावरण के नजरिए से, बल्कि सुप्रीम कोर्ट, एनजीटी और इस अदालत के निर्देशों के अनुपालन में भी। इन निर्देशों का उद्देश्य पारिस्थितिकी अखंडता को संरक्षित करना और दिल्ली के निवासियों और भावी पीढ़ियों के लिए स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण के मौलिक मानव अधिकार को सुरक्षित करना है।
रियायतों से प्रोजेक्ट्स में होगी देरी
दिल्ली हाई कोर्ट ने आगे कहा कि यमुना नदी की गंभीर स्थिति को देखते हुए, यह अदालत बिना किसी हिचकिचाहट के पाती है कि याचिकाकर्ता के कहने पर नदी के चल रहे रीस्टोरेशन और कायाकल्प प्रयासों में कोई दखल नहीं दिया जा सकता। अदालत के सामने रखे गए किसी भी मानवीय या सहानुभूतिपूर्ण विचार के बावजूद यह रुख कायम है, क्योंकि इस तरह की रियायतें अनिवार्य रूप से सार्वजनिक प्रोजेक्ट्स के समय पर और प्रभावी अमल में बाधा पैदा करेंगी और देरी की वजहें बनेंगी।
सरकारी तंत्र के रुख पर जताई निराशा
हाई कोर्ट ने हालांकि इस मामले में पुनर्वास के मुद्दे पर सरकारी तंत्र के रुख पर अपनी निराशा भी जाहिर की। कोर्ट ने कहा कि इस अदालत ने शरणार्थियों के पुनर्वास और विस्थापन को सुविधाजनक बनाने के लिए संबंधित अधिकारियों के साथ बातचीत करने के लिए ईमानदारी से कोशिश की। हालांकि, नौकरशाहों, खासकर केंद्र की ओर से एक दूसरे पर जिम्मेदारी डालने के इस क्लासिक केस की वजह से कोशिश बेनतीजा रहीं। फिर भी, यह अदालत शरणार्थियों की दुर्दशा को सुधारने के लिए नीति बनाने का काम नहीं कर सकती।